
भारत की राजनीति में एक बार फिर पावर प्ले का सीन बदल गया है। इस बार स्क्रिप्ट में शामिल हैं – एक रिटायर्ड ATS अफसर, भगवा आतंकवाद का पुराना स्क्रिप्ट, और एक बासी लेकिन गरमागरम बयान।
ATS के पूर्व अधिकारी महबूब मुजावर का खुलासा: ‘उपर से फोन आया था’
मुजावर का दावा –
“मुझ पर मोहन भागवत को गिरफ्तार करने का दबाव था। मौखिक आदेश था, कोई लिखित नहीं।”
इस बयान में घोषणा कम, गूंज ज्यादा है। सवाल ये नहीं कि वो सही हैं या गलत, सवाल है टाइमिंग का। रिटायरमेंट के बाद ऐसे खुलासे क्या पेंशन के साथ ‘पब्लिकेशन बोनस’ हैं?
भगवा आतंकवाद: विचारधारा की जांच या वोटबैंक का विज्ञान?
‘भगवा आतंकवाद’ – ये शब्द राजनीतिक शब्दकोश की लैब में पैदा हुआ, जिसमें धर्म, जांच और ध्रुवीकरण को मिलाया गया।
मुजावर का आरोप: “मुझे कहा गया कि मारे गए लोगों को ज़िंदा दिखाओ, और झूठी चार्जशीट तैयार करो।”
क्या ये सिर्फ अफसरशाही की रचनात्मक लेखन प्रतियोगिता थी? या सत्ता का वो हिस्सा जहाँ तथ्य से ज्यादा फ़्रेमिंग बिकती है?
मुजावर बनाम करकरे: एक ही केस, दो जाँच?
सपा सांसद अफजाल अंसारी कहते हैं –
“हेमंत करकरे ने वैज्ञानिक सबूतों के आधार पर जांच की थी।”
तो क्या मुजावर और करकरे दो अलग भारत में जांच कर रहे थे? या फिर जैसे-जैसे रैंक बदलती है, सच का स्वरूप भी तबादला हो जाता है?
कांग्रेस का मौन और बीजेपी की माफ़ीनामा डिमांड
बीजेपी के दिनेश शर्मा बोले –
“यह संघ को बदनाम करने की साजिश थी। राहुल-प्रियंका को माफ़ी मांगनी चाहिए।”
और उधर कांग्रेस – हमेशा की तरह, या तो सॉरी कहती नहीं, या बोलती है तो ‘इमरान मसूद’ जैसी “सब अफसर चम्मचबाज़” टाइप जुमले।
जांच एजेंसियाँ: लोकतंत्र की प्रहरी या राजनीति की प्यादा?
ये सबसे बड़ा सवाल है। अगर मुजावर की बातें सच हैं, तो हमारी एजेंसियाँ ऑर्डर-ऑन-फोन सिस्टम पर चल रही थीं।
अगर झूठ हैं, तो यह रिटायरमेंट-थ्रिलर है – वो भी बिना स्क्रिप्ट राइटर के।
“सच का फैसला अब अदालत नहीं, टाइमिंग करती है”
मुजावर की आत्मा की यह ‘जागृति’ देर से क्यों आई?
क्या यह खुद को इतिहास में ‘Whistleblower’ बनाने की कोशिश है या किसी और स्क्रिप्ट का हिस्सा?
“भारत में सिर्फ कोर्ट नहीं, साजिशें भी फैसला देती हैं। फर्क इतना है – कोर्ट में गवाह चाहिए, साजिश में बस सहमति।मुजावर का बयान सुनकर लगा – या तो ये देश की सबसे खतरनाक साजिश है, या फिर OTT रिलीज़ से पहले ट्रेलर!”
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